उर्दू हिन्दी अंग्रेजी त्रिभाषी कोष: Urdu Hindi English Trilingual Dictionary

उर्दू हिन्दी अंग्रेजी त्रिभाषी कोष: Urdu Hindi English Trilingual Dictionary

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Book Specification

Item Code: HAA307
Author: बदरीनाथ कपूर और आचार्य रामचन्द्र वर्मा: Badrinath Kapoor and Ramchandra Verma
Publisher: Lokbharti Prakashan
Language: Hindi
Edition: 2014
ISBN: 9788180316302
Pages: 501
Cover: Hardcover
Other Details 9.0 inch X 6.5 inch
Weight 780 gm

Book Description


पुस्तक परिचय

आचार्य रामचंद्र वर्मा कृत उर्दू हिन्दी कोश उर्दू और हिन्दी प्रेमियों के लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है । प्रस्तुत संशोधित संवर्द्धित संस्करण में पाठकों के अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव भी सम्मिलित किए गए हैं ।

इस कोश की विभिन्न उल्लेखनीय विशेषताओं में एक यह कि मुख्य प्रविष्टि के ठीक बाद उसका फारसी लिपि में अंकन किया गया है । यह भी कि इसमें हिन्दी में अर्थ देने के बाद अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है । ऐसी बहुतेरी विशेषताओं के कारण अब इस कोश की उपयोगिता और भी बढ़ गई है ।

अनेक नवीन शब्दों के समावेश से समृद्ध इस संस्करण से उर्दू हिन्दी और अंग्रेजी के अध्येता अपने भाषा ज्ञान को और अधिक विस्तार दे सकेंगे । दक्षिण भारत के विभिन्न भाषा भाषी हिन्दी का अध्ययन करते समय फारसी व अरबी आदि के शब्दों का अर्थबोध प्राय सहजता से नहीं कर पाते । इस कोश से ऐसी बहुत सी कठिनाइयों का निवारण सरलतापूर्वक हो सकेगा ।

कोश में शब्दों का अर्थ देते समय यह ध्यान रखा गया है कि जहाँ तक हो सके अर्थ ऐसे हों, जिनसे पाठकों को ठीक ठीक आशय के अलावा यह भी ज्ञात हो सके कि उन शब्दों का मूल क्या है अथवा वे किन शब्दों के परिवर्तित रूप हैं ।

यह कोश विद्यार्थियों, अध्यापकों, लेखकों, पत्रकारों और शोधार्थियों के लिए बहुत उपयोगी है ।

लेखक परिचय

जन्म 8 जनवरी, 1889 में काशी के एक मध्यवर्गीय खत्री परिवार में हुआ ।

शिक्षा स्कूली शिक्षा तत्कालीन हरिश्चंद्र मिडिल स्कूल में ।

गतिविधिया साहित्य और भाषा के प्रति विशेष अभिरुचि भारत जीवन प्रेस के सात्रिध्य में जाग्रत तथा पल्लवित हुई । छोटी अवस्था में ही आपने संस्कृत, अग्रेजी, उर्दू फारसी, बगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि भाषाएं सीख लीं, और हिंदी ज्ञानेश्वरी दासबोध, हिंदू राज्य तत्र, काली नागिन, छत्रसाल, अकबरी दरबार आदि ग्रथों का अनुवाद कर डाला । भारत जीवन प्रेस उन दिनों काशी की साहित्यिक गतिविधियों का मुख्य केद्र था

साहित्य सेवा वर्माजी की अभिरुचि, योग्यता तथा लगन देखकर बाबू श्यामसुंदर दास इन्हें नागरी प्रचारिणी सभा के कोश विभाग में ले गये और बीस वर्ष की अवस्था में ही इन्हें कोश के संपादक का पद प्रदान कर दिया । हिंदी शब्द सागर के निर्माताओं में तो वर्माजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा ही, इसके बाद आपने सक्षिप्त शब्द सागर, उर्दू सागर, उर्दू हिंदी कोश, आनंद शब्दावली, राजकीय कोश, प्रामाणिक हिंदी कोश तथा पाच खडों में मानक हिंदी कोश का भी सपादन किया । कोश वितान पर लिखी इनकी कोश कला नामक पुस्तक विश्व साहित्य में अपने ढग की पहली पुस्तक है । अच्छी हिंदी, हिंदी प्रयोग, शब्द साधना, शब्दार्थ दर्शन इनकी अन्य महान् कृतियां है ।

सम्मान भारत सरकार ने इन्हें पद्यश्री तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन ने विद्यावाचस्पति की उपाधियों से विभूषित किया

निधन 19 जनवरी, 1969

लेखक परिचय

जन्म 1932 में पंजाब के जिला गुजरानवाला मे ।

शिक्षा शिक्षा दीक्षा बनारस में ।

गतिविधियां 1950 से आचार्य रामचद्र वर्मा के साथ विभित्र सारो पर कोश कार्य । 1956 से 1965 तक मानक हिंदी कोश में सहायक संपादक के रूप में कार्य और 1983 से 1986 तक जापान सरकार के आमत्रण पर टोक्यो विश्वविद्यालय में अतिथि आचार्य । साहित्य सेवा वैज्ञानिक परिभाषा कोश, आजकल की हिंदी, हिंदी अक्षरी, अग्रेजी हिंदी पर्यायवाची कोश, शब्द परिवार कोश, लोकभारती मुहावरा कोश, नूतन पर्यायवाची कोश, परिष्कृत हिंदी व्याकरण, हिंदी व्याकरण की सरल पद्धति, लिपि, वर्तनी और भाषा, मीनाक्षी हिंदी अग्रेजी कोश तथा अग्रेजी हिंदी कोश । हिंदी के भाषा प्रयोगों पर नवीन कृति आधुनिक हिंदी प्रयोग कोश, सद्य प्रकाशित ।

भूमिका

किसी भाषा के शब्दकोश उसकी साहित्यिक सर्वांगीण उन्नति में वही स्थान रखते हैं जो किसी राज्य की उन्नति और विकास में अर्थ विभाग रखता है । जिस प्रकार किसी राज्य की सुदृढ़ता उसके प्रत्येक विभाग की स्वास्थ्यपूर्ण प्रगति, शक्ति और आधार बहुत कुछ उसके कोश की अवस्था पर अवलम्बित है उसी प्रकार किसी भाषा का विकास, निर्माण, उसके समस्त अंगों की ताजगी, सुडौलपन, चिरकाल स्थिरता और विस्तार बहुत कुछ उसके शब्द भण्डारों या शब्द कोशों पर ही निर्भर करता है । किसी भाषा की वास्तविक स्थिति और उत्रति जितनी पूर्णता से एक शब्दकोश में प्रतिबिम्बित होती है, उतनी भाषा के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं । समस्त प्रकाशमय ज्ञान शब्दरूप ही है और किसी भाषा के शब्दों के रूप का परिचय उसके कोशों द्वारा ही मिलता है, इसलिए किसी भाषा के स्वरूप का ज्ञान जितनी आसानी से शब्दकोश द्वारा हो सकता है उतना अन्य किसी साधन से नहीं हो सकता ।

कोश लिखने की कला किस प्रकार प्रारम्भ हुई, भिन्न भिन्न भाषाओं में पहले पहल कोश किस प्रकार तैयार किए गए इस कला का विस्तार किन रेखाओं पर हुआ और होता जा रहा है, यदि इसका क्रमबद्ध इतिहास लिखा जाए तो जहाँ वह बहुत मनोरंजक होगा वहाँ उसके द्वारा हमें उन सिद्धान्तों और पद्धतियों का भी परिचय प्राप्त हो सकेगा जिनके आधार पर इसका निर्माण और विकास हुआ है । हमारे यहाँ संस्कृत के जो प्राचीन कोश मिलते हैं उनमें किसी शब्द का पता लगाने के लिए सबसे पूर्व उसके अन्तिम अक्षर को देखना पड़ता है । इस प्रकार के कोशों के अन्त में शब्दों की कोई अनुक्रमणिका नहीं है और न कोई उसकी विशेष आवश्यकता प्रतीत होती है । इन कोशों में वर्णमाला के क्रम से शब्दों को इस प्रकार लिया गया है कि वे जिस शब्द के अन्त में आते हैं उनको अक्षरक्रम से लिखा गया है । इनमें वर्णक्रम से पहले एक अक्षर के शब्द, फिर दो अक्षर के, फिर तीन अक्षर के और फिर इसी प्रकार शब्दों का उल्लेख किया गया है । जहाँ एकाक्षर शब्द समाप्त हो जाते हैं वहाँ उनकी समाप्ति लिख दी जाती है । और द्वयक्षर शब्दों के प्रारम्भ की सूचना दे दी जाती है और आगे भी इसी प्रकार किया जाता है । उदाहरणार्थ, यदि आप अमृत शब्द को देखना चाहें तो वह आपको त के त्र्यक्षरों में अ में मिलेगा । मेदिनी कोश, विश्व प्रकाश कोश, अनेकार्थ संग्रह इसी प्रकार के कोश हैं । अमर कोश में इससे भिन्न पद्धति को अख्तियार किया गया है । उसमें विषयानुसार शब्दों का विभाग और क्रम रखा गया है और बाद में वर्णमाला के अक्षरक्रम से शब्दों की सूची दे दी गयी है जिसमें सुगमता

के साथ शब्दों का पता लगाया जा सकता है ।

यह तो है संस्कृत के प्राचीन कोशों की कथा । इसी तरह अन्य भाषाओं के कोशों की भिन्न पद्धतियाँ हैं । इस समय कोश निर्माण की जिस पद्धति का अद्भुत विकास हुआ है उसका नाम है ऐतिहासिक पद्धति । इसके अनुसार प्रत्येक शब्द का सिलसिलेवार पूरा इतिहास देना पड़ता है । अक्षर क्रम से पहले शब्द, फिर उसका उच्चारण, उसके बाद उसकी व्युत्पत्ति या वह स्रोत जिसके कारण शब्द का प्रादुर्भाव हुआ, फिर उसके अर्थपूर्ण उद्धरणों के साथ इस प्रकार दिये जाते हैं कि अमुक सन् में इस शब्द का यह अर्थ था, फिर अमुक सन् में यह हुआ इस तरह क्रमश सामयिक निर्देश देते हुए उसके समस्त अर्थों का प्रामाणिक प्रदर्शन किया जाता है । एक शब्द भाषा में किस समय प्रविष्ट हुआ, किस प्रकार प्रविष्ट हुआ और उसके अर्थो का विकास किस समय और क्या हुआ, इसका पूर्ण विस्तार और उसके प्रमाणों द्वारा सरलता के साथ विवेचन करने का प्रयत्न किया जाता है । जिसमें उस शब्द के स्वरूप का स्पष्टता और विस्तार के साथ परिचय प्राप्त होता है । इस प्रकार इस पद्धति पर प्रस्तुत किये गए कोशों में प्रत्येक शब्दों का पूर्ण इतिहास मिल जाता है । इस तरह के कोशों को बनाने में कितना परिश्रम करना पड़ता है,कितना समय और धन इसमें खर्च होता है इसकी सहज में ही कल्पना की जा सकती है । परन्तु इस प्रकार के कोशों से शब्दों के स्वरूप का पूर्ण शुद्धता और विस्तार के साथ जो सुस्पष्ट और पूरा परिचय प्राप्त होता है वह वैज्ञानिक होता है और उसमें किसी प्रकार के सन्देह की गुंजाइश नहीं रहती ।

किसी कोश में शुद्धता और प्रमाणिकता न हो वह शब्दों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझा सकता । पहले शब्दों का शुद्ध, प्रामणिक और विज्ञानसंगत संग्रह और फिर उनका शुद्ध और प्रामणिक समझने में आनेवाला सरल अर्थ व्यवहार अन्य समस्त विस्तारों को छोड्कर भी इतने अधिक जरूरी है कि उनकी किसी प्रकार उपेक्षा नहीं की जा सकती । इसी प्रामणिकता और शुद्धता के कारण कोशकार का कार्य बड़ा ही उत्तरदायित्वपूर्ण है और यदि वह सतत अध्यवसाय, कठोर परिश्रम, गहन अध्ययन और अनुशीलन के द्वारा इस अपने उत्तरदायित्व को पूर्णतया निभाता है तो स्वयं एक प्रामणिक कोशकार हो जाता है जिसका प्रमाण सन्देह के अवसरों पर विश्वास के साथ दिया जा सकता है ।

प्रसन्नता की बात है कि हिन्दी और इससे सम्बद्ध भाषाओं के कोशों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित होने लगा है । यह इस बात की पहचान है कि हम लोग अपनी भाषा तथा उससे सम्बद्ध भाषाओं के स्वरूप को अच्छी तरह जानना चाहते हैं । इसके परिणामस्वरूप पहले जो कोश तैयार हो रहे है उनमें बहुत सी त्रुटियाँ होनी अनिवार्य हैं परन्तु ज्यों ज्यों प्रामणिकता और शुद्धता को माँग बढ़ती जाएगी त्यों त्यों कोशों द्वारा ऐसे शुद्ध और प्रामणिक कोश तैयार होंगे जो शब्दों का सही और पूर्ण परिचय दे सकेंगे और इस तरह वे हमारी भाषा की एक स्थिर सम्पत्ति बनकर हमारे साहित्य की प्रगति और उन्नति में सहायक हो सकेंगे ।

उर्दू और हिन्दी का सम्बन्ध पुराना है । हम यहाँ दोनो भाषाओं के ऐतिहासिक विस्तार मे नहीं जाना चाहते । यद्यपि उर्दू जबान का समस्त ढाँचा हिन्दी का है और पुरानी उर्दू में हिन्दी के शब्दों का बहुत कसरत से प्रयोग किया गया है, तो भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि वर्तमान हिन्दी के आधुनिक रूप के विकास में उर्दू का बड़ा हाथ है । दोनो भाषाओं के रूप पूरी समानता होते हुए भी उनमें धीमे धीमे इतना फर्क पड़ गया है और पड़ता जा रहा है कि दोनो भाषाओं को बिल्कुल एक कर देना आज कल की अवस्थाओं में कुछ असाध्य सा प्रतीत हो रहा है । जो लोग इन दोनो भाषाओं में एकरूपता उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहे हैं उनका विश्वास है कि यदि हिन्दी उर्दू मिलवा ज़बान लिखी जाए अर्थात् यदि उर्दूवाले हिन्दी के शब्दों का और हिन्दीवाले प्रचलित उर्दू का बिना तकल्लुफ इस्तेमाल करें तो सम्भव है कि इन दोनो जबानों में यकसानियत पैदा हो जाए जिससे हिन्दी और उर्दू का झगड़ा हमेशा के लिए मिट जाए

। इस उद्देश्य को सामने रखकर कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने इस बात को अमल में लाने का प्रयत्न भी आरम्भ कर दिया है । परन्तु इसके लिए सबसे ज्यादह जरूरी चीज है दो भाषाओं का प्रामणिक ज्ञान और इस प्रकार के आयोजन जिनके द्वारा ये दोनों भाषाएँ निकट आ सकें और इस निकटता को लाने के लिए कोश एक बहुत बड़ा साधन है । जबसे इन बातों का आगाज़ हुआ है बहुत से हिन्दी से अनभिज्ञ उर्दू जाननेवाले लोग इस तरह के हिन्दी शब्दकोश की तलाश में हैं जो हो तो उर्दू लिपि में परन्तु जिसके द्वारा हिन्दी शब्दों का ज्ञान हो सके और इसी प्रकार उर्दू से अनभिज्ञ हिन्दी जाननेवाले इस तरह के उर्दू की खोज में हैं जो नागरी लिपि में परन्तु जिसके द्वारा उन्हें उर्दू के शब्दों का यथार्थ परिचय प्राप्त हो सके । इस बात में तो कोई सन्देह नहीं कि इस प्रकार दोनो भाषाओं का पारस्परिक ज्ञान दोनो भाषाओं को जहाँ निकट ला सकेगा वहाँ शायद उपर्युक्त प्रवृत्ति को जाग्रत करने और फैलाने में भी सिद्ध हो सकेगा शायद रफ्ता रफ्ता दोनों भाषाओं की दूरी और पृथकता मिट सकेगी ।

यह उर्दू हिन्दी कोश भी एक इसी तरह का साहसपूर्ण प्रयत्न हैं । हो सकता है कि इस कोश में बहुत सी त्रुटियाँ हों क्योंकि कोश का कार्य सरल और स्वल्प परिश्रमसाध्य नहीं है । तो भी इस विषय में दो सम्मतियाँ नहीं हो सकती कि इस कोश के द्वारा उर्दू शब्दों के जानने का एक ऐसा आधार प्रस्तुत कर दिया गया है जिसमें आवश्यकतानुसार परिवर्धन और संशोधन हो सकते हैं और जिसे एक प्रामणिक उर्दू कोश के रूप में परिणत किया जा सकता है । हर एक भाषा की कुछ न कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं और जब एक भाषा का कोश दूसरी भाषा में लिखा जाता है तो उन विशेषताओं का ज्ञान कराने की भी आवश्यकता होती हैं । उर्दू की बहुत सी विशेषताओं के विषय में सम्पादक महोदय ने अपनी प्रस्तावना में बहुत कुछ लिखा है । हमारी सम्मति में अच्छा होता यदि कोशकार महोदय अलिफ और ऐन का जो हिन्दी में अ के अन्तर्गत हो जाते हैं, भेद बतलाने के लिए कोई ऐसा सांकेतिक चिह्न दे देते जिससे यह स्पष्टत मालूम पड़ जाता कि अमुक शब्द अलिफ से और अमुक ऐन से लिखा जाता है । इसी प्रकार सीन , स्वाद , ते और तोए आदि के शब्दों में भी भेद रखने के लिए सांकेतिक चिह्नों की आवश्यकता थी । यद्यपि कोश के सिवा अन्यत्र इन शब्दों को सांकेतिक चिह्नों के साथ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं अनुभव होती तो भी इस भाषा के कोश में हर शब्द के साथ इस तरह के भेदों को बतलाना जरूरी है । इसमे एक तो भाषा के शुद्ध रूप से परिचिति हो जाती है, दूसरे भाषा की बनावट और उसमें जो हमारी भाषा से पृथकता और विशेषता है उसका भी अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है । इसके साथ कहीं कहीं शब्दों के उच्चारण को भी लिखने की आवश्यकता थी । आशा है कि अगले संस्करणों में इन सब बातों की ओर ध्यान दिया जाएगा ।

हिन्दी को समस्त भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न हो रहा है । इसमें जिस तरह उर्दू में से अरबी फारसी शब्दों का सम्मिश्रण हो रहा है क्योंकि इन दोनो भाषाओं में बहुत कुछ समानताएँ हैं उसी प्रकार ज्यों ज्यों हिन्दी भाषा का भारतीय व्यापक रूप विस्तृत होगा त्यों त्यों इसमें गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भाषाओं के शब्द भी मिश्रित होंगे । यदि उर्दू की हिन्दी के साथ एक तरह की समानता है तो इन भाषाओं की भी हिन्दी के साथ दूसरी तरह की समानता है । इसलिए इन भाषाओं के शब्दों का मिलना भी हिन्दी में अनिवार्य है क्योंकि ज्यों ज्यों भिन्न प्रान्तों के लोग हिन्दी अपनाएँगे उसमें कुछ न कुछ उसका प्रान्तीय असर अवश्य मिलेगा । क्या ही अच्छा हो यदि इसी प्रकार इन भाषाओं के प्रामाणिक कोश भी हिन्दी में सुलभ हो जाएँ । इससे वे भाषाएँ भी हिन्दी के निकट आ जाएँगी, और यदि नागरी द्वारा एक लिपि का प्रश्न हल हो गया तो इससे उन भाषाओं के ज्ञान में भी सुभीता हो जाएगा और उन भाषाओं का उत्तम साहित्य भी हिन्दी में आसानी से प्रविष्ट होकर हिन्दी में भारतीयता के अंश की वृद्धि के साथ उसके क्षेत्र को विस्तृत और व्यापक बना सकेगा ।

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